योगी कथामृत हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Yogi Kathamrita Hindi Book PDF


Yogi Kathamrita Hindi Book PDF


योगी कथामृत हिंदी पुस्तक पीडीएफ / Yogi Kathamrita Hindi Book PDF All Chapters -


1. मेरे माता-पिता एवं मेरा बचपन

2. माँ का देहान्त और अलौकिक तावीज

3. द्विशरीरी संत

4. हिमालय की ओर मेरे पलायन में बाधा

5. गंधबाबा के चमत्कारी प्रदर्शन

6. बाघ स्वामी

7. प्लवनशील सन्त

8. भारत के महान् वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बोस

9. परमानन्दमग्न भक्त और उनकी ईश्वर के साथ प्रेमलीला

10. अपने गुरु श्रीयुक्तेश्वरजी से मेरी भेंट

11. दो अकिंचन बालक वृन्दावन में

12. अपने गुरु के आश्रम की कालावधि

13. विनिद्र संत

14. समाधि-लाभ

15. फूलगोभी की चोरी 207

16. ग्रह-शान्ति

17. शशि और तीन नीलम

18. एक मुस्लिम चमत्कार-प्रदर्शक

19. मेरे गुरु कोलकाता में, प्रकट होते हैं श्रीरामपुर में

20. कश्मीर-यात्रा में बाधा 

21. हमारी कश्मीर-यात्रा

22. पाषाण प्रतिमा का हृदय

23. विश्वविद्यालय से उपाधि की प्राप्ति

24. मेरा संन्यास-ग्रहणः स्वामी-संस्थान के अन्तर्गत

25. भाई अनन्त एवं बहन नलिनी

26. क्रियायोग विज्ञान

27. रांची में योग-विद्यालय की स्थापना

28. काशी का पुनर्जन्म और उसका पता लगना

29. रवीन्द्रनाथ टैगोर और मेरे विद्यालयों की तुलना

30. चमत्कारों का नियम

31. पुण्यशीला माता से भेंट

32. मृतक राम को पुनः जीवन-दान

33. आधुनिक भारत के महावतार बाबाजी

34. हिमालय में महल का सृजन

35. लाहिड़ी महाशय का अवतार सदृश जीवन

36. पश्चिम के प्रति बाबाजी की अभिरुचि

37. मेरा अमेरिका-गमन

38. लूथर बरबैंक - गुलाबों के बीच एक सन्त

39. ईसा-क्षतचिह्न-धारिणी कैथोलिक संत टेरेसा नॉयमन

40. मेरा भारत लौटना

41. दक्षिण भारत में एक काव्यात्मक दृश्य

42. अपने गुरु के साथ कुछ अंतिम दिन

43. श्रीयुक्तेश्वरजी का पुनरुत्थान

44. महात्मा गांधी के साथ वर्धा में

45. बंगाल की आनन्दमयी माँ

46. निराहारी योगिनी

47. मैं पश्चिम लौटता हूँ

48. एन्सिनीटस (कैलिफोर्निया) में

49. १९४०-१९५१ की अवधि


Yogi Kathamrita Hindi PDF Chapter 1 - मेरे माता-पिता एवं मेरा बचपन

परम सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है।

इस खोज के मेरे अपने मार्ग ने मुझे एक भगवत्स्वरूप सिद्ध पुरुष के पास पहुँचा दिया जिनका सुघड़ जीवन युग-युगान्तर का आदर्श बनने के लिये ही तराशा हुआ था। वे उन महान विभूतियों में से एक थे जो भारत का सच्चा वैभव रहे हैं। ऐसे सिद्धजनों ने ही हर पीढ़ी में अवतरित हो कर अपने देश को प्राचीन मिश्र (Egypt) एवं बेबीलोन (Babylon) के समान दुर्गति को प्राप्त होने से बचाया है।

मुझे याद आता है, मेरे शैशव-काल में पिछले जन्म की घटनाओं की स्मृतियाँ मेरे स्मृतिपटल पर उभर रही थीं, तथापि ये स्मृतियाँ उन घटनाओं के घटित होने के क्रम के अनुसार नहीं थीं। बहुत पहले के एक जन्म की स्पष्ट स्मृतियाँ मुझ में जागती थीं जब मैं हिमालय में रहनेवाला एक योगी था। अतीत की इन झाँकियों ने किसी अज्ञात कड़ी से जुड़कर मुझे भविष्य की भी झलक दिखायी।

शिशु अवस्था की असहाय के अवमाननाओं की स्मृति मुझमें अभी भी बनी हुई है। चल-फिर पाने में और अपनी भावनाओं को मुक्त रूप से व्यक्त कर पाने में असमर्थ होने के कारण मैं विक्षुब्ध रहता था। अपने शरीर की अक्षमताओं का भान होते ही प्रार्थना की लहरें मेरे भीतर उठने लगती थीं। मेरे व्याकुल भाव अनेक भाषाओं के शब्दों में मेरे मन में व्यक्त होते थे। विविध भाषाओं के आंतरिक संभ्रम के बीच मैं धीरे-धीरे अपने लोगों के बंगाली शब्द सुनने का अभ्यस्त होता गया। यह थी शिशु मस्तिष्क की मन बहलाने की सीमा, जिसे बड़े लोग केवल खिलौनों और अँगूठा चूसने तक ही सीमित मानते हैं!

इस मानसिक विक्षुब्धता और मेरा साथ न देनेवाले शरीर के कारण कई बार मैं झल्लाकर आकुलता से रो पड़ता था। मेरी आकुलता पर परिवार में सबको होने वाला विस्मय मुझे याद है। सुखद स्मृतियाँ भी अनेक हैं: मेरी माँ का दुलार और तुतलाने तथा लड़खड़ा के चलने के मेरे आरम्भिक प्रयास। इन आरम्भिक सफलताओं को सामान्यतः जल्दी ही भुला दिया जाता है, परन्तु फिर भी ये आत्मविश्वास की स्वाभाविक आधार-शिलाएँ होती हैं।

मेरी इन सुदूरगामी स्मृतियों का होना कोई अपूर्व बात नहीं है। अनेक योगियों के विषय में ज्ञात है कि उन्होंने जन्म-मृत्यु के नाटकीय अवस्था परिवर्तन में भी अपने आत्मबोध को बनाए रखा। यदि मनुष्य केवल शरीर होता तो निःसंशय उसकी मृत्यु के साथ ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता। किन्तु यदि युग-युगान्तर से सिद्ध महात्माओं ने सत्य प्रतिपादित किया है तो मानव मूलतः अशरीरी, सर्वव्यापी आत्मा है।

शैशवावस्था की सुस्पष्ट स्मृतियों का होना विलक्षण तो है किन्तु ऐसी घटनाएँ अति दुर्लभ भी नहीं। अनेक देशों में यात्रा करते हुए मैंने अनेक सत्यनिष्ठ स्त्री-पुरुषों के मुख से उनकी शैशवावस्था की स्मृतियाँ सुनी हैं।

मेरा जन्म पूर्वोत्तर भारत में हिमालय पर्वत श्रेणी के निकट स्थित गोरखपुर में ५ जनवरी १८९३ ई. को हुआ था। वहीं मेरे जीवन के पहले आठ वर्ष व्यतीत हुए थे। हम आठ बच्चे थेः चार भाई और चार बहनें। मैं मुकुन्दलाल घोष, * भाइयों में दूसरा और माता-पिता की चौथी सन्तान था।

मेरे माता-पिता बंगाली क्षत्रिय थे। दोनों ही सन्त-प्रकृति के थे। उनके शांत एवं शालीन दाम्पत्य प्रेम में कभी कोई अनर्थक व्यवहार व्यक्त नहीं हुआ। माता-पिता के बीच आपसी सामंजस्य चारों ओर चलने वाले आठ नन्हें जीवों के कोलाहल का शान्त केन्द्र था।


Yogi Kathamrita Hindi PDF Book Chapter 2 - माँ का देहान्त और अलौकिक तावीज

मेरी माँ की सबसे बड़ी इच्छा मेरे बड़े भाई के विवाह की थी। "अहा! जब मैं अनन्त की पत्नी का मुख देखूँगी तब मुझे इस धरती पर ही स्वर्ग मिल जायेगा !" इन शब्दों में माँ को अपने वंश को आगे चलाने की प्रबल भारतीय भावना व्यक्त करते मैं प्रायः सुनता था।

अनन्त की सगाई के समय मैं लगभग ग्यारह वर्ष का था। माँ कोलकाता में अत्यंत उल्लास से विवाह की तैयारियों में जुटी हुई थीं। केवल पिताजी और मैं ही उत्तरी भारत में स्थित बरेली में अपने घर में रह गये थे, जहाँ लाहौर में दो वर्ष रहने के बाद पिताजी का स्थानान्तरण हो गया था।

इसके पूर्व मैं अपनी दो बड़ी बहनों रमा और उमा के विवाहों का ठाठबाट देख चुका था, किन्तु घर में सबसे बड़ा पुत्र होने के नाते अनन्त के विवाह की तैयारियाँ तो और भी बड़े स्तर पर हो रही थीं। माँ प्रतिदिन दूर-दूर से कोलकाता पहुँचते सगे-संबंधियों की आवभगत करने में व्यस्त थीं। माँ ने ५०, एमहर्स्ट स्ट्रीट में लिये गये एक नये विशाल घर में उन सबके आरामपूर्वक ठहरने की व्यवस्था की थी। सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकीं थीं - विवाह-भोज के लिये नाना-विध व्यंजन, बारात के साथ अनंत को ले जाने के लिये पालकी, रंगबिरंगी बत्तियों की कतारें, गत्तेके विशालकाय हाथी और ऊँट, अंग्रेज़ी, स्कॉटिश और हिंदुस्तानी बैंडबाजे, पेशेवर गायक तथा नर्तक, विवाह-विधि सम्पन्न कराने के लिये पंडित- पुरोहित - सब कुछ तैयार था।

मंगलोत्सव के उत्साह से भरे हुए पिताजी और मैं समय पर विवाह के लिये पहुँचने का विचार कर रहे थे। परन्तु उस शुभ दिन से थोड़े ही पहले मैंने एक अमंगलसूचक दृश्य ध्यान में देखा।

यह बरेली में अर्द्धरात्रि के समय था। मैं पिताजी के साथ अपने बंगले के बरामदे में सोया हुआ था। पलंग पर लगी मच्छरदानी की विचित्र फड़फड़ाहटकी-सी ध्वनि से मेरी नींद खुल गयी। पतली मच्छरदानी के पर्दे खुल गये और मुझे अपनी प्रिय माँ दिखायी पड़ीं।

"अपने पिताजी को जगाओ!" माँ की आवाज़ केवल एक फुसफुसाहट की तरह लगी। "आज ही भोर को चार बजे यहाँ से चलनेवाली पहली गाड़ी पकड़ो । यदि मुझे देखना चाहते हो तो जल्दी करो!" इसके बाद वह छायामूर्ति अदृश्य हो गयी।

"पिताजी, पिताजी ! माँ प्राण त्याग रही हैं!" मेरे आर्त स्वर में व्याप्त भयाकुलता ने उन्हें तत्क्षण जगा दिया। सुबकते हुए मैंने उन्हें सारी घटना सुना दी। अपने स्वभाव के अनुसार इस स्थिति को अस्वीकार करते हुए उन्होंने मुझसे कहा: "चिन्ता की कोई बात नहीं। यह तुम्हारे मन का भ्रम मात्र है। तुम्हारी माँ बिल्कुल ठीक है। यदि कोई दुःखद समाचार मिल ही गया तो हम लोग कल चल पड़ेंगे।"

"यदि आप अभी तुरन्त नहीं चले तो अपने आप को आप कभी क्षमा नहीं कर पायेंगे !"

तीव्र व्यथा के कारण मेरे मुँह से ये शब्द भी निकल पड़ेः "और न ही मैं आपको कभी क्षमा करूँगा!"

विषादपूर्ण प्रातःकाल स्पष्ट सन्देश लेकर आयाः "माँ गम्भीर रूप से अस्वस्थ; विवाह स्थगित; तुरन्त आइये।"

पिताजी और मैं हतबुद्धि होकर निकल पड़े। रास्ते में जहाँ गाड़ी बदलनी पड़ती थी, वहाँ मेरे एक चाचा हम लोगों से मिले। आकार में बड़ी-बड़ी होती जाती एक रेलगाड़ी वज्र-गर्जन के साथ हमारी ओर आ रही थी। आंतरिक क्षुब्धता के कारण अपने आप को गाड़ी के आगे झोंक देने का निश्चय अचानक मेरे मन में उठा। मुझे लगा कि माँ की छत्रछाया से वंचित हो जाने के बाद अब अचानक पूर्णतः उजड़ गये इस संसार को सहने की क्षमता मुझ में नहीं है। मैं माँ से इस संसार में सबसे प्रिय मित्र के रूप में प्यार करता था। उनके सांत्वनादायक काले नयन बचपन की छोटी-छोटी व्यथा-वेदनाओं के समय मेरा एकमात्र आश्रय थे।


Yogi Kathamrita Hindi PDF Book Chapter 3 - द्विशरीरी संत

"पिताजी ! यदि मैं बिना किसी दबाव के घर लौटने का वचन दूँ, तो क्या दर्शन यात्रा के लिये बनारस जा सकता हूँ?"

मेरे यात्रा-प्रेम में पिताजी शायद ही कभी बाधा बनते थे। मेरी किशोरावस्था में भी अनेक शहरों और तीर्थस्थलों की यात्रा करने की अनुमति वे मुझे दे देते थे। साधारणतया मेरे साथ मेरे एक या अधिक मित्र होते। पिताजी द्वारा प्रदत्त प्रथम श्रेणी के पासों पर हम लोग आरामपूर्वक यात्रा करते। हमारे परिवार के खानाबदोश लोगों के लिये पिताजी का रेलवे अधिकारी का पद पूर्णतः संतोषप्रद था।

पिताजी ने मेरे अनुरोध पर यथोचित विचार करने का वचन दिया। दूसरे दिन मुझे अपने पास बुलाकर उन्होंने बरेली से बनारस जाने-आने का एक पास, एक रुपये के कुछ नोट और दो पत्र देते हुए कहाः

"मुझे बनारस के अपने मित्र केदारनाथ बाबू को एक कार्य के विषय में कुछ प्रस्ताव भेजना है। दुर्भाग्यवश उनके पते का कागज़ मैंने कहीं खो दिया है। परन्तु मुझे विश्वास है कि हम दोनों के मित्र स्वामी प्रणवानन्द की सहायता से तुम यह पत्र उन तक पहुँचा सकोगे। स्वामीजी मेरे गुरुभाई हैं, उन्होंने अति उन्नत आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त कर ली है। उनके संग से तुम्हें भी लाभ होगा। यह दूसरा पत्र उन्हें तुम्हारा परिचय देगा।"

साथ में यह कहते हुए पिताजी की आँखें चमक उठी: "याद रखो, अब फिर कभी घर से नहीं भागना, समझे !"

अपनी बारह वर्ष की आयु के उत्साह के साथ मैं निकल पड़ा (यद्यपि समय ने नवीन दृश्यों और अपरिचित व्यक्तियों से मुझे मिलने वाले आनंद में अभी भी कोई कमी नहीं आने दी है)। बनारस पहुँचते ही मैं सीधे स्वामीजी के निवास स्थान की ओर चल पड़ा। सामने का द्वार खुला था, मैं दूसरी मंजिल पर स्थित एक लम्बे हॉलनुमा कमरे में जा पहुँचा। फर्श से कुछ ऊँची उठी हुई एक चौकी पर स्थूलकाय एक व्यक्ति केवल एक अधोवस्त्र धारण किये हुए पद्मासन में बैठे थे। उनका होठों पर शांत, सुन्दर मुस्कान खेल रही थी। मेरे अवांछित प्रवेश के संकोच को दूर करने के लिये किसी चिरपरिचित मित्र की भाँति उन्होंने मेरा स्वागत किया।

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