विशिष्ट सिद्ध दुर्लभ प्रयोग हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Vishisht Siddh Durlabh Prayog Hindi Book PDF Download
साधन पथ पर अग्रसर हुए शिष्य का लक्षण हैं गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण, अडिग विश्वास, अटूट श्रद्धा, साधना के प्रति निष्कपट पूर्ण प्रेम, गुरु के साथ नमन एवंम अभिन्नता का भाव एवंम साधना के प्रति तीव्र उत्साह गुरु अपनी शक्ति का उपयोग करके दीक्षा और साधन प्रदान द्वारा अपनी गुरु शक्ति का प्रयोग करते है। साधना सफलता के लिये शिष्य को गुरु शक्ति से पूर्ण प्रभावित और भक्तिमान होते हुए अपने अन्तर में गुरु को नेत्रों के माध्यम से समाहित करते हुए, आज्ञा चक्र में स्थापित करते हुए (यही क्रिया योग सिद्धि है) पूर्ण गुरुमय होना चाहिए। इस सर्वोच्च स्थिति में शिष्य के अस्तित्व का पूर्ण विसर्जन हो जाता है और वह पूर्णतः गुरु की पूर्ण शक्ति का केन्द्र हो जाता है जहाँ उसे गुरु की सभी साधनाएं स्वतः प्राप्त हो जाती है।
पूर्ण श्रद्धा एवम प्रेम युक्त नमन जब अश्रु की तीव्रता से युक्त होकर प्राणों को संकृत करते है तो शिष्य गुरू के प्राणों में उत्तर जाता है और गुरु के हृदय और ज्ञान का स्पर्श स्वतः होने लगता है, और लक्ष्य प्राप्ति हो जाती है। ऐसे शिष्य के चेहरे पर करोड़ो सूर्य का तेज दृष्यमान हो जाता है। मानव जीवन की सार्थकता पूर्णता में है जो पूर्ण शिष्यत्व से ही प्राप्त होती है। हमारे शास्त्र ने जहाँ लक्ष्य निर्धारित किया है तमसो मां ज्योतिर्गमय, ज्योतिर्मय पथ पर गुरु (गु-अंधेरा, रू-हरण करना) ही ले जा सकते है। जहां मृत्योर्मा अमृतगमय, उस अमृत की क्रिया जो नाभि चक्र जागरण और एक कला से सोलह कला तक जीव को उन्नति क्रिया है वह गुरु द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि गुरु पूर्ण अर्थात सोलहकला युक्त माने जाते है।
मानव मात्र का उच्च कर्तव्य है, कि वह इस मनुष्य देह के सर्वोच्य लक्ष्य आत्म ज्ञान प्राप्ति के लिए सबसे आवश्यक तत्व गुरु शिष्य सम्बन्ध को समझे और उस परम आनन्दकारी सम्बन्ध को स्थायित्व देते हुए, गुरु द्वारा निर्देशित मार्ग पर पूर्ण श्रद्धा एवं अत्यन्त तीव्रता से चलकर इसी जीवन में पूर्णत्व प्राप्ति कर ले। सिद्धाश्रम पंचांग के अनुसार अश्विन त्रयोदसी गुरू सिद्धि दिवस है। यह अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण दिवस हैं, क्योंकि पूरे वर्ष में यही एक ऐसा दिन है, जब गुरू तत्व की प्राप्ति हो सकती है, यही एक ऐसा दिवस है, जब सारे शरीर में चैतन्यता प्राप्त हो सकती है और कुण्डलिनी जागरण की उर्द्धगामी प्रक्रिया का प्रारम्भ होता हैं।
इस दिन प्रत्येक साधक के लिए साधना करना अनिवार्य बताया है क्योंकि सिद्धाश्रम के योगियों के अनुसार इस दिन स्वगुरू, आत्मगुरू परमगुरू और पारमेष्ठी गुरू अपने सुक्ष्म शरीर से सर्वत्र विचरण करते रहते हैं और जो भी साधक इसी दिन गुरु तत्व साधना सम्पन्न करता है, उसे पूर्ण चैतन्यता प्रदान करते हैं। चैतन्य सिद्धि - तापनीयोपनिषद में बताया गया है, कि जब तक साधक को चैतन्य सिद्धि नहीं हो जाती, तब तक उसे सफलता प्राप्त हो ही नहीं सकती। स्वामी विवेकानन्द कई वर्षों से रामकृष्ण परमहंस के सत्संग में रह कर काली साधना सम्पन्न कर रहे थे, उन्होने काली की मूर्ति को प्राप्त किया।
पीतल को उस मूर्ति में विधि विधान के साथ पूजन किया, प्राण प्रतिष्ठा की और महाकाल संहिता से अनुसार उसका पूजन अर्चन चिन्तन, मनन और साधना संपन्न करने लगे। इस प्रकार पूरे पांच नवरात्र व्यतीत हो गये, पर न तो काली के दर्शन हुए और न किसी प्रकार की अनुभूति ही हुई। उन्होंने पुनः अपने आप को टटोला कहीं मैं स्वयं तो गलती नहीं कर रहा हूं, उन्होंने रामकृष्ण परमहंस की बताई हुई विधि का पुनः अध्ययन किया, मंत्र को पुनः टटोला और पूरी पूजा अर्चना को ध्यान से अध्ययन किया तो उन्हें कहीं पर भी कोई त्रुटी दिखाई नहीं दी।
वे अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे, गुरू रामकृष्ण परमहंस के पास गए, रामकृष्ण परमहंस ने कहा तुझे दर्शन हो ही नहीं सकते, क्यों कि उस मूर्ति में तो तूने प्राण प्रतिष्ठा कर दी परंतु तेरा शरीर तो अबी तक पूरा जड़ ही बना हुआ है, उसमें किसी प्रकार की चैतन्यता नहीं हैं, और एक जड़ को एक निषाण व्यक्ति को मां के दर्शन हो ही कैसे सकते हैं?
Book | विशिष्ट सिद्ध दुर्लभ प्रयोग | Vishisht Siddh Durlabh Prayog |
Author | Dr Narayan Dutt Shrimali |
Language | Hindi |
Pages | 67 |
Size | 14 MB |
File | |
Category | Tantra Mantra |
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