सिद्ध प्रयोग हिंदी पुस्तक | Siddha Prayog Hindi Book PDF Download :
इस परिवर्तनशील संसारचक्र पर अवस्थित प्रत्येक का परिवर्तन निश्चीत है, यह विवाद सिद्ध है। अपरिवर्तनात्मक पदार्थ इस पूरे जगत में कोई भी नहीं। दवासुर, मानुषादि से वृत्तवीरुधादि पर्यंत समस्त चराचर भ्रमात्मक है। प्रत्येक द्विजाति समान में यह श्रत स्मरण करते हैं। "यथा धाता यथा पूत्र मकल्पयत्" अर्थात देशाल में समुत्यन्न प्रातः स्मरणीय पूर्वज आप्त महनियों ने त्रिकाल में इसी परिवर्तन-क्रम को सदा ध्यान रखने की सदाज्ञादी है।
अब कहिये; आपको आगे क्या सोचना है? उसी प्रकृति-चक्र में पड़कर क्या हमारी आयुर्वेदीय चिकित्सा प्रणाली निर्वाध रह सकती ? तात्पर्य यह भी मुक्त नहीं रह सकी। ठीक ऐसे ही अवसर में अल्पज्ञ किंतु स्वार्थ साधन पटु 'वैद्य नामधारियों ने पूर्वाचार्य कथित सदुपदेशों का दुरुपयोग किया, ये साधनों के अभाव से आयु वद का यथाथ ज्ञान न होने से वे चिकित्सा कार्य में असफल होने लगे तत्र तो उनकी सत्र ओर से स्तुति होने लगी।
वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराज सहोदरं । यमस्तु हरति - प्राणान्वैद्यः प्राणान्धनानि च । ऐसे लाइनों से अपमानित हो "अनुभूत- प्रयोगों" की खोज करने लगे, सत्र समयानुसार एक-एक प्रयोग के संकड़ों मूल्य हो गये। इतना ही नहीं; कितने ही कुक्षिभरि दूरदर्शी स्वार्थी पुरुष अपने सहस्रशेऽनुभूत यंत्रों की अन्यों को न बदला कर अपने साथ ही लेकर सदा को विदा हो गये; रहे सहे लोग प्राणों से भी भाधक -धन प्रयोगों की रक्षा करते रहे।
अब वैधगण हाथ पर हाथ रखे बैठे रह गए, शिकार भी हाथ से चला गया। अपनी विपत्ति रोएं तो कहां पर? साधारण पर स्वार्थ-साधन वैद्यों के कारण प्राचीन प्रिय धन आयुर्वेद पर व योग्य वैद्यों पर भी अयश - कालिमा पोती जाने लगी, कई वर्षों तक चिकित्सा कर प्राप्त अनुभवों यदि अन्य वैद्यों के समक्ष प्रकट किया जाता रहा तो उन्हें भी क्यों उतना ही काल अनुभव प्राप्त करने में लगता ?
किसी सुदृढ़ पत्थर के खरल में विशुद्ध बत्सनाभ के टुकड़ों को अदरख के रस से तब तक घोटता जाय जब तक विष फेनाभ न होजाय जब विष के टुकड़े सर्वथा पिष्ट न हो जायँ और खल ष्ट न हो जायें में फेन ही फेन दृष्टिगोचर होने लगे तो उचित मात्रा में हिंगुल और गंधक गेर कर फिर कुछ समय तक घोटता जाय जब वे भी सुपिष्ट होजायँ तत्र अत्रशिष्ट योगिक औषधि गैर कर नीबू के स्वरस से एक भावना दे जब इन औषधियों की पिष्टिका गोली बनाने योग्य होजाय तो आधी रत्ती या १ रत्ती परिमित गोली बनाले।
वातज्वरों में तुलसी के पत्तों के स्वरस के साथ या मधु के साथ या दोनों के साथ पैत्तिक ज्वरों में पटोलपत्र स्वरस या पित्त- पापड़ा के रख अथवा नारियल के जल के साथ दें, कफोस्थित नवज्वरो या विषमज्वरों में आद्रक स्वरस के साथ प्रयोग करें। यदि सन्निपात ज्वर में तापमान नवज्वर के समान तेज हो और आध्मान अजीणें ये लक्षण विद्यमान हों तो जम्बीर स्वरस के साथ मृत्युञ्जय का प्रयोग करना चाहिये।
Book | सिद्ध प्रयोग | Siddha Prayog |
Author | Pandit Vishveshwar Dayalu |
Language | Hindi |
Pages | 129 |
Size | 63 MB |
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Category | Bhakti Dharma |