रसतंत्रसार व सिद्ध प्रयोग संग्रह हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Rastantrasar Va Siddha Prayog Sangrah Hindi Book PDF



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रसतंत्रसार व सिद्ध प्रयोग संग्रह हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Rastantrasar Va Siddha Prayog Sangrah Hindi Book PDF Download

प्रथम विधि - अभ्रक सत्वको कूट वारीक चूर्ण कर समान घी मिलाकर लोहेकी कड़ाही में भूनें। कड़ाही अति लाल होजाने पर लोहेकी खरल में डालकर घोटें । पुनः घी मिलाकर भूनें। लाल हो जानेपर तोह खरल में घोटें । इस तरह सात बार करें। फिर वां हिस्सा गन्धक मिला बड़की जटाके क्वाथमें खरलकर टिकिया बना, सुखा, सराव सम्पुटकर गजपुट दें । इस तरह बड़की जटाके काथके ५० गजपुट दें और बट दुग्धके भी पुट देवें तो विशेष बलवान होता है । फिर त्रिफला काथके ५० गज- पुट दें। सब गजपुट बार-बार गन्धक मिलाकर देते रहें । इस तरह १०० पुट देनेपर उत्तम सत्वाभ्र रसायन तैयार होता है ।

द्वितीय विधि - अभ्रक सत्वको मूषामें रख कर कोयलों की तीव्राग्निपर तपावें; और लाल होजाने पर कांजी में बुझावें । फिर इमाम दस्ते से खूब कूट, तोहेकी खरल में घोटें । जो करण बड़े रह गये हों, उनको मूपामें डाल कर तपायें। फिर काँजी में बुझा कर कूदें । पश्चात् लोह खरल में घोट कर बारीक चूर्ण करें । इस चूर्ण के साथ समभाग घी मिला कर लोहे की कड़ाही में भूनें। कड़ाही खूब लाल हो जाने पर नीचे उतार लोह खरल में डाल कर वोटें । शीतल हो जाने पर पुनः समभाग घी मिला कर कड़ाही में भूनें। पुनः लोह खरल में घोटें । इस तरह तीन बार करने से मुलायम चूर्ण हो जायगा । 

पश्चात् आंवले का रस और आंवलों के पत्तों का स्वरस मिला- मिलाकर ३-३ बार तपावें । बार-बार ताल हो जाने पर लोह खरल में घोटें । फिर पुनर्नवा का रस, वासापत्रका स्वरस और कांजी, इन तीनोंके मिलाये सेर जलमें मिला चतुर्थांश काथ कर उस क्वाथका इस भस्म में पचन करें। फिर ४ सेर गोमूत्र तथा १ सेर तिल-तैल का पचन करावें । जिससे कलईके प्रत्येक परमाणुमें रहा हुआ दोष जल जायगा, और भस्म निर्दोष बनेगी । फिर भस्मके वजनसे दूने · वजनके मेंहदी के ताजे पत्ते बिना जल डाले कूदें, उसके साथ भस्म मिला टाटके टुकड़े पर दो अंगुल मोटी तह फैलावें । 

पश्चात् दृढ़तापूर्वक लपेट कर गोल गट्ठा बनावें और ऊपर नारियल की डोरी कसकर बाँध दें। फिर गट्ट को निर्वात स्थानमें मिट्टीके - बरतनके भीतर ३ गोबरीके ऊपर रक्खें । पश्चात् ऊपर ५-७ गोवरी रखकर अग्नि दे देनेसे सफेद पुष्पवत् वङ्ग भस्मकी खील बन जाती है । इस भस्म को पुनः दूसरी बार मेंहदोके पत्तों के साथ मिलाकर अग्नि देनेसे अति गुणवान् वङ्ग भस्म बनती है । १ सेर शुद्ध कलईको दलदार, मजबूत मिट्टी ( या लोहे ) की कड़ाही में डाल कर द्रव करें। उसमें थोड़ा-थोड़ा पोस्त डोडेका चूर्ण डालते जाँय और ववूलके ताजे डंडे से चलाते रहें । 

४ सेर पोस्त डोडेका चूर्ण समाप्त होने पर लगभग १२ घण्टे में भस्म वन जाती है । फिर भस्मको कड़ाईमें इकट्ठी कर ऊर तवा ढक दें और ६ घण्टे तक अग्नि देवें । स्वांग शीतल होने पर सम्मको कपड़े से छान, घीकुंवारके रसमें २ दिन खरल कर १-१ तोलेकी टिकिया बना कर धूरमें सुखावें । यह भस्म जीर्ण ज्वर, क्षय, कास अन्त्रप्रदाह, नेत्ररोग, प्रलाप आदि में अति हितकारक है । उरःक्षत और श्वास नलिका प्रदाह जन्य कास रोग में जब अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त कफ निकलता हो, तब जसद भस्म और सुवर्णमाक्षिक भस्म १-१ रत्ती मिलाकर दिन में ३ समय ४ तोले गरम जल में मिलाकरपिलाते रहने से ३-४ मास में रोग दमन हो जाता है। 

नेत्र की लाली, अनुस्त्राव, दाह, दृष्टि की निर्बलता आदि रोगों पर धोये घृत में २ प्रतिशत का मलहम बनाकर भोजन तथा मक्खन मिश्री के साथ उदर सेवन करना चाहिये । उरःक्षत में कफ रक्त मिश्रित आता हो, तो यह भस्म दिन में ३ बार अमृतासत्व, मिश्री और घृत के साथ देने से दो चार दिन में ही रुधिर निकलना बन्द हो जाता है ।





Bookरसतंत्रसार व सिद्ध प्रयोग संग्रह | Rastantrasar Va Siddha Prayog Sangrah
AuthorNathu Singh
LanguageHindi
Pages653
Size22 MB
FilePDF
CategoryTantra Mantra
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