राष्ट्रयोगी हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Rashtrayogi Hindi Book PDF Download
नारी का महिमागान करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि महान नारियाँ अपने सतीत्व से, स्व के महत्व से, आचरण की पवित्रता से, वाणी की विनयशीलता से और मस्तिष्क में उपजे विवेक से समूची पृथ्वी के तल की शोभा बढ़ा देती हैं। वे धात्री का अलंकरण सा प्रतीत होने लगती हैं। इतने विशेष शब्द, विचार, आम- साहित्यकार या विचारक जीवन भर नहीं लिख सकते, इन्हें लिखनेवाला कोई महाचार्य और महान दार्शनिक ही हो सकता है। अध्ययन किया तो समझ में आ गया कि मेरी सोच सही है, उक्त आशय को लेकर प्रातः स्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अपनी पवित्र लेखनी चलाई थी। मुझे खुशी हुई कि जैनदर्शन के ग्रंथों में विश्वस्तरीय सोच को सदियों पूर्व अंकित कर दिया गया था।
यह पृथक बात है कि पृथ्वी निवासी बौराने पाठक जीवन में उसे पढ़ने का समय ही नहीं निकाल पाते, दिन-रात संसारवर्धन करने वाले विचारों में खोये रहते हैं। पाठकों ने तो यह भी न पढ़ा होगा कि उक्त दिगम्बराचार्य जी ने साधुओं त्यागियों पर भी लिखा है। धरती माता का गौरववर्धन मात्र नारियाँ नहीं करतीं, साधु-संत भी करते हैं। जिन महान त्यागी - तपस्वियों ने परलोक के साथ इहलोक का पारदर्शी अध्ययन किया है और इहलोक (संसार) को समझा है, समझ लेने के बाद उसे त्याग दिया है, उनकी महिमा से पृथ्वी जगमगा रही है। प्रस्तुत महाकथा में ऐसे ही एक त्यागी तपस्वी का चित्रण किया है जिन्होंने स्वतः को आत्मा सा, बना लिया है, कर लिया है।
उनका वह आत्मा एक अर्थपूर्ण वैराट्य का प्रतीक है जो अक्षय है। अक्षर है। तपस्वी जी की चर्या पर ध्यान देकर मैं यह कह पा रहा हूँ कि वे 'अक्षर' रहकर अमरता की यात्रा कर रहे हैं। उनका नितप्रति का पुरुषार्थ उन्हें आज नहीं तो कल मोक्षमार्ग पर ला देगा। यह सत्य आप भी जानते होंगे कि जो आत्मा मोक्षमार्ग पर चलने की जुगत बना लेती है, उसे कुछ भव पश्चात् सही, मोक्ष का द्वार भी मिल जाता है। वह तपस्वीजी यदि मेरी आपकी भाषा में 'अक्षर' तुल्य हैं तो हमें अक्षर की व्याख्या भी समझना चाहिए। अक्षर शब्द से कुछ समय के लिए 'क्षर' हटा दीजिए, मात्र 'अ' पर विचार कीजिए तो पायेंगे कि 'अ' तो निषेधात्मक अथवा विपरीत अर्थवाचक है, यथा-अकारण या असमर्थ।
तब विश्वास होता है कि 'अ' कह रहा है-व्यक्ति अकारण ही असमर्थ बना न बैठा रहे, वह कर्मठता और प्रज्ञा के श्रृंगार से समर्थ बने। अक्षर में से 'क्ष' हटा दें तो 'अर' बचता है, 'अर' माने जिद, हठ, अड़। यह 'अर' संकेत करता है कि सत्योपासना के लिए सही साधक ही अड़ सकता है। सो हमें 'सही' बनना चाहिए और 'सही' के लिए अड़ना चाहिए। अब 'र' को निकाल दें तो 'अक्ष' बचता है। 'अक्ष' जो पृथ्वी की धुरी है, जिस पर वह घूमती है। 'अक्ष' बतलाता है कि आदमी घूमता न रहे, केन्द्र बने या केन्द्र की ओर बढ़ने का प्रयास करे और अपनी यात्रा के समय स्वतः ही आँख खोलकर रखे, स्वयं आँख बने। अक्ष बने।
अक्षर में से 'अ' निकाले जाने पर 'क्षर' शब्द की इयत्ता सामने आती है वह नाशवान का सूचक है। इंगित करता है कि शरीर, सम्पत्तियाँ और संसार नाशवान हैं अतः आत्मा (अक्षर) को साधिए जो अक्षीर्ण है। अक्षर के रूप में मैंने श्रमणाचार्य, चारित्ररथी 108 श्री विमर्शसागर जी का संतत्व देख लिया है। अतः इस लेखनी ने प्रयास किया है कि उनकी तरह ही, हम सब अपनी आत्मा को संस्कारित करते चलें हर पल, संस्कार स्थापना का कार्य अंतिम साँस तक चलता रहे ताकि अंत में समाधि के रूप में अक्षराभिषेक सम्पन्न करने की पात्रता बची रहे, जीवन जाता रहे संस्कार ध्वनित होते रहें।
जब लेखनी किसी 'धर्मग्रन्थ' की रचनार्थ चलती है तो वह चलते समय धर्मग्रन्थ से ऊपर हो जाती है, ग्रंथ उसके नीचे रहता है तब तक यह पृथक बात है कि ग्रंथ के लोकार्पण के बाद, लेखनी टेबिल तक सीमित रह जाती है। और 'ग्रंथ' दर्शन, ज्ञान, चारित्र के आकाश को स्पर्श कर लेता है। हो जाता है। विराट, महान और लोकोपयोगी। हाँ, बिल्कुल संत की भाँति, संत घाँई, संत सा। सुनें, वे अब जिनवाणी से आमूलचूल भरे हुए आगम हैं। आगमचक्खु हैं। उनके नेत्र अनेकान्त से सजे हुए हैं, वाणी स्याद्वाद से रची-पची है, कदमों के नीचे केवल चारित्र की धात्री है। सो हैं वे 'चारित्ररथी'। उनकी चर्या को नमन।
Book | राष्ट्रयोगी | Rashtrayogi |
Author | Suresh Jain 'Saral' |
Language | Hindi |
Pages | 401 |
Size | 46 MB |
File | |
Category | Bhakti Dharma |
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