करीन-ए-ज़िन्दगी हिंदी पुस्तक पीडीएफ | QARINA-E-ZINDAGI Hindi Book PDF Free Download
जुरे नज़र किताब (करीन-ए-जिन्दगी) मिल्लत के उन अफराद (लोगों) के लिए बेहद फायदेमन्द साबित होंगी जो अज़्दवाजी (शादीशुदा) जिन्दगी से जुड़े है। खुसूसन वोह नवजवान जो अपनी ला इल्मी और मज़हब से दूरी के सबब गैर इन्सानी हरकतें कर के अल्लाह अज्ज व जिल्ला और रसूले अकरम सल्लल्लाहो तआला अलैहि व सल्लम की नाराज़गी मोल लेते है। याद रखिये दुनिया का वोह वाहिद मज़हब, मज़हबे इस्लाम है जो ज़िन्दगी के हर मोड़ पर हमारी रहबरी करता हुआ नज़र आता है, पैदाइश से लेकर मौत तक घर से लेकर बाज़ार तक, ईबादत से लेकर तिजारत तक, खिलवत (तन्हाई) से लेकर जलवत के तअल्लुक से आप सवाल करे, इस्लाम हर एक का आप को इतमिनान बख़्श जवाब देता नज़र आएगा। हमारे मज़हब ने हमें कभी भी किसी मकाम पर तन्हा नहीं छोड़ा।
हमारे नबी (सल्लल्लाहो तआला अलैहि व सल्लम) आखरी नबी है अब कियामत तक कोई नबी नहीं आएगा। इसी आखरी नबी का लाया हुआ दीन व कानून भी आखरी कानून है कियामत तक कोई नया दीन व कानून नहीं आएगा। इसलिए मिल्लत के अफाद (लोगों) से अपील है के वोह दूसरों की नकल करने से बचें, नक्ल तो वोह करे जिस के पास अस्ल न हो! हम तो वोह खुश किस्मत उम्मत है जिस को कियामत तक के लिए दस्तूरे ज़िन्दगी और जाबत-ए-हयात दें दिया गया है। ताके येह कौम कियामत तक किसी की मोहताज न रहें।
कुदरत ने हर नर के लिए मादा और हर मादा के लिए नर पैदा फ़रमा कर बहुत से जोड़े आलम में बनाए और हर एक के बदन की मशीन पर मुख़्तलीफ़ पुर्जों को इस अन्दाज़ के साथ सजाया के वोह हर एक की फितरत के मुताबिक एक दूसरे को फायदा पहुँचाने वाले और ज़रूरत को पूरा करने वाले हैं। अल्लाह रब्बुल ईज्ज़त ने मर्द और औरत के अन्दर एक दूसरे के ज़रिये सुकून हासिल करने की ख़्वाहिश रखी है। चुनानचे मज़हबे इस्लाम ने इस ख़्वाहिश का एहतराम करते हुऐ हमें निकाह करने का तरीका बताया ताकि इन्सान जाइज़ तरीकों से सुकून हासिल करें।
इस जमाने में अक्सर मर्द निकाह के बाद अपनी ला इल्मी और मज़हब से दूरी की वजह से तरह तरह की गलतियाँ करते हैं और नुकसान उठाते हैं इन नुकसानात से उसी वक्त बचा जा सकता है जब के इस के मुत्अल्लिक सही इल्म हो। अफसोस इस ज़माने में लोग किसी आलिमे दीन से या फिर किसी जानकार शख्स से मियाँ, बीवी के ख़ास तअल्लुकात के गुत्अल्लिक पूछने या मअलूमात हासिल करने से कतराते है। हालांकि दीन की बातें और शरई मसाइल के मअलूम करने में कोई शर्म महसूस नहीं की जानी चाहिये थी।
अक्सर देखा येह गया हैं के लोग मियाँ, बीवी के दरमियान होने वाली ख़ास चीज़ों के बारे में पूछने में शर्म महसूस करते है और इसे बेहुदापन व बेशर्मी समझते हैं। यही वोह शर्म व झिझक हैं जो गलतियों का सबब बनती है और फिर सिवाए नुकसान के कुछ हाथ नहीं आता। एक साहब मुझ से कहने लगे ! “क्या येह शर्म की बात नहीं ? के आप ने ऐसी किताब लिखी है जिस में सोहबत के बारे में साफ़ साफ़ खुले अन्दाज़ में बयान किया गया है। अगर मैं येह किताब अपने घर पर रखूँ और वोह मेरी माँ, बहनों के हाथ लग जाए तो वोह मेरे मुअल्लिक क्या सोचेगे के मैं एैसी गन्दी किताब पढ़ता हूँ"।
उनकी यह बात सुन कर मुझे उनकी कम अक्ली पर अफसोस हुआ। मैं ने उनसे सवाल किया- क्या आपके घर TV है ? कहने लगे---"हाँ है” मैं ने कहा ! मुझे आप बताईये "जब आप एक साथ एक ही कमरे में अपनी माँ, बहनों के साथ टीवी पर फ़िल्में देखते हैं और उस में वोह सब कुछ देखते हैं जो अपनी माँ बहनों के साथ तो क्या अकेले में भी देखना जाइज़ नहीं तो उस वक्त आप को शर्म क्यों नहीं आती"!! प्यारे भाईयों, शरई रौशनी में अदब के दाएरे में ऐसी बातों की मालूमात हासिल करना और उसे बयान करना जरूरी है और इस में किसी किस्म की शर्म व बेहुदापन नहीं।
Book | करीन-ए-ज़िन्दगी / QARINA-E-ZINDAGI |
Author | Maulana Farooq Khan Razvi |
Language | Hindi |
Pages | 229 |
Size | 49 MB |
File | |
Category | Islamic, Hindi Books |
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