वेदांत पियूष अगस्त 2023 हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Vedanta Piyush August 2023 Hindi Book PDF
उपरति आत्मज्ञान के लिए आवश्यक सम्पत्ति की तरह बताई जाती है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है, उप अर्थात् समीप और रति अर्थात् रमण करना। अपने आप में रमना यह उपरति है। उपरति तब ही सम्भव होती है, जब कोई अपने अन्दर धन्य व कृतार्थ होता है। अपने आपकी यथावत् स्वीकृति है, जहां परिवर्तन की कोई आकांक्षा नहीं है। ऐसी मनोस्थिति जहां प्रत्येक प्राप्त परिस्थिति में धन्यता की वृत्ति बनी हुई है। ऐसी धन्यता भगवान के प्रति श्रद्धा और भक्ति का अद्भुत प्रसाद होता है। जहां प्रभु से कुछ भी मांगने की अपेक्षा नहीं है। जो कुछ भी प्राप्त है, उसे प्रभु की कृपा देखा जा रहा है। परमात्मा के प्रति अत्यन्त समर्पण है, जहां स्वयं को भी परमात्मा के हाथ में निमित समझा जा रहा है। वहां मन में प्रभु की बरसती हुई कृपा देखकर कृतज्ञता की भावना है।
अतः निष्क्रियता भी नहीं है, किन्तु प्रभु के द्वारा प्राप्त प्रत्येक परिस्थिति को प्रभु की आज्ञा मानकर उसकी सेवा के लिए कर्म की अभिव्यक्ति है। जीवन में चिन्ता भय आदि का नामोनिशान नहीं है। वह प्रत्येक क्षण धन्यता का जीवन जीते हैं। एक ग्रंथ में आचार्य ने उपरति की व्याख्या करते हुए बताया कि स्वधर्म अनुष्ठानमेव। परमात्मा ने प्रत्येक जीव की विशेष प्रकृति बनाई है। उसके अनुरूप मन के अन्दर सहज प्रवृत्ति वा झुकाव होता है। उसे ही वर्ण अथवा स्वधर्म कहा जाता है। अपने स्वध धर्म के अनुरूप जीना ही प्रभु के अधीन होकर, उनकी आज्ञा का पालन करके जीना है। जब कोई व्यक्ति अपने स्वधर्म को जीता है, वहां उन कर्म में कोई चेष्टा वा प्रयास नहीं लगता है।
अतः कर्म के समय भी कर्म के बोझ से मुक्त रह पाता है, उसमें सहजता का आनन्द व अपने अन्दर विश्रान्ति का अनुभव करता है। कर्तापन के बोझे से रहित होने की वजह से कर्तृत्व का अभिमान भी शिथिल होता है। ऐसी स्थिति में स्वधर्म रूप कर्म मात्र आनन्द का हेतु बन जाता है, अतः उसके लिए आनन्द की प्राप्ति की, भविष्य की कोई गणित नहीं होती है। वह कर्मफल की चिन्ता से मुक्त हो जाता है। कर्मफल के प्रति चिन्ता व आसक्ति उसे भविष्य अथवा कल्पना के जगत में ले जाती है। इस प्रकार मनुष्य को अपने आपसे दूर कर देती है। जिसकी वजह से मूल्यवान वर्तमान के क्षण हाथ से फिसल जाते हैं।
अन्त में भूतकाल का स्मरण करके पश्चाताप मात्र होता है। भूत और भविष्य में यात्रा ही अपने आपसे दूर जाना है। स्वधर्म के अनुष्ठान से वह अपने आपमें रमता है। जो व्यक्ति भूत की ग्लानि और भविष्य की चिन्ता से मुक्त होता है, वह ही वर्तमान में उपलब्ध वस्तु के बारे में विचार करके गहराई में जाने में समर्थ होता है। कर्मफलासक्ति से मुक्ति उसे अन्तर्मुख बनाती है। वह अपने स्वस्वरूप के बारे में गहराई से विचार करने में समर्थ हो पाता है। अतः स्वधर्म अनुष्ठान को ही उपरति बताया। इस मूल्य को विकसित करने के लिए प्रभु की बरसती हुई कृपा को देखकर धन्यता होनी चाहिए।
पूरी सृष्टि उनकी सुन्दर कृति है, तथा हम भी उनकी कृति है । इस बात को जानते हुए अपने होने मात्र में धन्यता हो तथा प्रभु ने जिस विशेष प्रकृति व सामर्थ्य से नवाजा है, उसे पहचान कर समग्रता से जीना चाहिए। जो यह करने में समर्थ होता है, वह उपरम नामक सम्पत्ति से युक्त होता है। बाहर की पराधीनता से मुक्ति का बल इसीसे प्राप्त होता है। प्रत्येक जीव की यात्रा कर्मक्षेत्र से ही आरम्भ होती है। कर्म की अध्यात्मयात्रा में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उससे आत्मज्ञान हेतु मन को पात्र बनाया जाता है। मन की रागादि अशुद्धि की निवृत्ति होती है, मन शान्त, सूक्ष्म, विचारशील और अन्तर्मुख होता जाता है।
यह कर्मक्षेत्र की सब से महान उपलब्धि है। किन्तु यह तब सम्भव होता है कि जब कर्म के पीछे अपना रवैया उचित हो, कर्म को कर्मयोग बनाकर जीएं। यही धर्मशास्त्र का भी विषय है। ऐसी महत्वपूर्ण भूमिका होते हुए भी अधिकतर अज्ञानजनित मोह व उचित शिक्षा के अभाव में कर्मक्षेत्र को अनुकुलता की प्राप्तिमात्र का साधन समझता है। प्रतिपल यह अनुभव होता है कि ऐसा सुख प्राप्त करने पर भी प्यास ज्यों कि त्यों बनी रहती है। सर्वोत्कृष्ट आनन्द प्राप्त हो जाएं तो भी धन्य व कृतार्थ होकर नहीं जीते है। उसके उपरान्त भी प्यासे भोक्तामात्र बने रहते है। आत्मज्ञान हेतु कर्मक्षेत्र की सीमा समझनी चाहिए।
Book | वेदांत पियूष अगस्त 2023 / Vedanta Piyush August 2023 |
Author | Swamini Amitananda Saraswati |
Language | Hindi |
Pages | 58 |
Size | 2.8 MB |
File | |
Category | Hindi Books, Hinduism |
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