प्यारे का प्यारा हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Pyare Ka Pyara Hindi Book PDF Download
मूसलाधार वर्षा होने लगी। चारों ओर जंगल, न कोई गांव और न कोई बस्ती, वस्त्र भीग गये। थैला भी भीग गया। अब सर्दी भी आ गई। नीचे से पांव फिसलते थे और ऊपर से बूंदे पड़ती थीं । चारों ओर पवन शरीर की गर्मी उड़ा रही थी। हे वाहिगुरू! इस समय क्या हो ? हृदय ने खूब प्रतीक्षा की ! आंखों ने आपा फाड़कर भी चारों ओर दूर तक नज़र दौड़ाई, पर कोई ठिकाना नज़र न आया। ठिकाने के बिना ठहरना बेकार था और चलते जाना पर कष्ट को बढ़ाये जा रहा था। हां, चलते रहने में ठहरने की अपेक्षा एक सुभीता था कि शरीर का ताप जितना उड़ता था उतना अन्दर से और उत्पन्न होता जाता था और कुछ जीवन के तार के चलते रहने की आशा हो सकती थी। परन्तु अब अंगों में थकान- सी प्रतीत होने लगी जो चलने को भी भारी किये जा रही थी ।
इस प्रकार के कष्ट झेलते हुए एक बुर्जी- सी दिखाई दी। मन ने इच्छा की कि यह कोई ठोस बुर्जी न हो। ईश्वर करे कि यह कोई मन्दिर, समाधि अथवा मकबरा हो जिससे मुझे इस कष्ट से छुटकारा मिले। आंखों ने निशाना बनाकर देखा, पांवों ने साहस बटोरा, मन ने मिन्नतें मानीं। वह बुर्ज आ गया, सौभाग्य था, वह ठोस बुर्ज न निकला, एक द्वार था, जिसमें कोई किवाड़ नहीं था, पर अन्दर खुले बैठने और घुटने जोड़कर लेटने के लिए ही जगह थी।
पहले तो कदम रखते ही बीते समय के किसी भले पुरुष की भभूति का विश्राम स्थल होने के कारण उसके प्रति सत्कार के भाव ने रोका कि कदम संभालकर रख, पर फिर उसी भलाई के ख़्याल ने कहा कि जीते जी जिन्होंने सुख देकर भला कहलवाया क्या मरकर अपने द्वार पर आये अतिथि के को दूर दुःख करने से दूर हटना पसंद करेंगे ? यह विचार करके मैं बढ़े हुए छज्जे के नीचे आकर खड़ा हो गया, जूता उतारा, वस्त्र उतार कर रख दिये, थैला खोला। बाहरी भाग भीग चुका था, पर अन्दर से एक चद्दर, कच्छा, कुरता और चादर कुछ सूखे से निकल आये। शरीर पोंछकर यह वस्त्र पहन लिये और उस छोटी-सी जगह के अन्दर जा डेरा लगाया। शरीर को कुछ गर्मी . आ गई और सुख - सा हो गया।
जब सर्दी तथा यात्रा की ओर से ध्यान हटा तो अपने सुख की ओर आ गया और सुख की ओर से सुख के कारण की ओर जा पड़ा। 'आह ! अगर यह स्थान प्राप्त न होता तो न जाने मेरी क्या दशा होती ? किन सौभाग्यवान हाथों ने इस स्थान का निर्माण किया होगा? न जाने मेरी ही रक्षा के लिए किसी ने किसी बीते समय में ये सामग्री इकट्ठी करवाई होगी ?' अब विचार आया कि 'यह गुरूद्वारा भी नहीं, मन्दिर भी नहीं, समाधि भी नहीं दिखाई देती यदि है तो क्या है ?' फिर मन पेड़ गिनने से क्या लाभ आम खाने चाहिए। सुख प्राप्त ने कहा- हो गया है और साईं ने दिया है, धन्यवाद कर और जितना है उसके अनुसार पांव पसारकर विश्राम कर। जब लेट गया तो थोड़े ही समय में चूने वाली दीवारों तथा मेहराब वाली छत की सफेदी पर फिरती-फिरती दृष्टि भारी होकर वापिस लौटी और पुतलियों द्वारा नीचे उतरकर मुझे निद्रा में मग्न कर गई।
जब मैं सो गया तब उस स्थान पर प्रकाश हो गया और उस प्रकाश में कुछ सूरत का भ्रम होने लगा। पर बाद में एक अच्छी ऊंचे तथा सूरत गोरे रंगी की सुडौल स्त्री पर दृष्टि पड़ी, जिसके चेहरे पर सुख की चमक और शान्ति की दमक थी । नेत्र स्वच्छ, प्यार से भरे हुए थे। मुझे कहने लगी - 'हे सुखों के प्यारे ! शहीदों के स्थान पर बेअदबी के साथ क्यों पड़ा है ? जिस स्वामी ने तुझे यह स्थान बताया था, उसका प्रतिदिन करने वाला कीर्तन भी नहीं किया और लगा है निद्रा करने? धन्यवाद के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं, मलिन है। आज के कष्ट तथा कष्ट में सुख की इच्छा तथा निराशा में सुख की प्राप्ति ने सुख भोगने की ओर इतना आकृष्ट कर लिया है कि तुझे रहरास ( सांयकाल को जिस वाणी का सिख पाठ करते हैं) का पाठ भी भुला दिया और सोहिला ( रात को सोते समय जिस वाणी का पाठ किया जाता है) भी याद न रहा।
Book | प्यारे का प्यारा / Pyare Ka Pyara |
Author | Veer Singh Bhai |
Language | Hindi |
Pages | 71 |
Size | 11 MB |
File | |
Category | Hindi Books, Novel, Story |
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