मित्रो मरजानी - कृष्णा सोबती हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Mitro Marjani - Krishna Sobati Hindi Book PDF



Mitro Marjani - Krishna Sobati Hindi Book PDF


मित्रो मरजानी हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Mitro Marjani Hindi Book PDF Download

मटमैले आकाश का छोटा-सा टुकड़ा रोशनदान से उतर चौकोर शीशों पर आ झुका तो नींद में बेखबर सोए गुरुदास सहसा अचकचाकर उठ बैठे । बाँह बढ़ा खिड़की से चश्मा उठा आँखों पर रखा और चौकन्ने हो कमरे की पहचान करने लगे। वह रहा कोने में रखा अपना छाता, खूँटी पर लटका लम्बा कोट, अपना ही घर है ।

घर में सब ठीक-ठिकाने है भला चंगा हूँ मैं भी । तनिक दुपहरी सो ही तो लिया... सिरहाना दुहराकर ढासना लिया कि एकाएक मसूढ़े की उठती पीर से बेबस हो फिर लेट गए । हाय ओ !... अभी उस दिन तो दूध के दाँत निकले थे और आज एक झटके से उखड़ भी गए । कुछ देर दाँतों के नीम-डॉक्टर का चेहरा आँखों के आगे ठिठका रहा, फिर बूँद-बूँद रिसते पानी में ओझल हो गया। इतना लम्बा सफर इतनी जल्दी कट गया

उसी दिन तो अम्मा को आगे का हिलता दाँत दिखाया था । अम्मा ने ठुड्डी छू समझाया था-मुन्ने बेटे, दाँत गिरे-पीछे जिभा से न छूना। बत्तीसी रूठ जाएगी !- अम्मा की हल्दी लगी अधमैली ओढ़नी में से झाँकता छोटे घूँघटवाला मुखड़ा... वह जीती- जागती साक्षात् लक्ष्मी-सी माँ किन भूले-बिसरे सपनों में जा लुकी! अरे, कहाँ चले गए सुहाने दिन और कहाँ गए अपने अम्मा और बापू ? सुरगों में जिनका वास, ऐसे अपने बापू को, हाय, इस अभागे ने कभी याद ही नहीं किया। एक-एक पल स्वास- स्वास जिन्होंने पाल-पोस बड़ा किया, उनके आँखें मींचते ही उनकी मोह-ममता भी गई। छूट

न, न, गए बरस तो बापू के श्राद्ध पर ब्राह्मण जिमाए थे। कपड़े-लीड़े मंसाए थे । सब किया था, कायदे-करीने तौ सब हुआ, पर देवता से उस बापू को घर में याद किसने किया ? धनवन्ती चौके चूल्हे में लगी रही । बहुएँ कन्नी काट अपने-अपने काम में रुझ रहीं और लड़की... उन्हें अपने बापू की नहीं तो बापू के बापू की क्या फिकर ? दिन-भर- ख्वारी बाहर और रात मौज-मस्त ! दरिया-सी जवानी इन्हें क्या अनोखी चढ़ी है ? इन किनारों में भी बाढ़ आई थी पर पानी जैसे चढ़ा था वैसे ही उतर भी गया । धनवन्ती बेचारी इस कबीलदारी में ऐसी फँसी कि नासमझ को न सुध अपनी, न इस बूढ़े गुरुदास की। दुपहरी दाढ़ निकलवाकर आया था पर साथिन घड़ी-भर को जो पास आ बैठी हो । कभी रौं थी तो इस बिछौने के आसपास दिन-रात एक कर देती थी। अब रौं है तो सबकुछ भूल-भाल बहू-बेटों में रुझी पड़ी है। गुरुदास फिर लेटे-लेटे उठ बैठे और अवाजारी से घरवाली को आवाज दी- बनवारी की माँ !

हाथ का काम वहीं का वहीं छोड़ धनवन्ती अन्दर उठ आई । बत्ती जला पास आ पूछा- कुछ पीर कम हुई ?

घूँट भर गर्म-गर्म दूध लाऊँ ?

चुँधी- चुँधी आँखों गुरुदास पहले नाराज़ी से देखते रहे फिर हाथ हिला तीखे गले कहा- उसके बिना मरा नहीं जाता हूँ ! मन-ही-मन धनवन्ती धनी से डरी पर झूठ-मूठ के तेवर चढ़ा कहा- शुभ-शुभ बोलो !

लड़केवाले सुनेंगे तो क्या कहेंगे ?

गुरुदास ने झुंझलाकर सिर हिलाया-लड़कों के होश- हवास ठिकाने हैं जो सुनेंगे ?

- ऊँचा बोल अपना सिर न थकाओ ।... लड़के तो बारी-बारी बापू का हाल पूछ गए हैं।

-मेरे सामने उनकी गर्दन झाड़ धनवन्ती, मैं भी उनका बापू हूँ !

धनवन्ती ने पास झुक लिहाफ़ पर हाथ फेरा और निहोरकर कहा- मेरा इतना - सा कहा तो रख लो, गर्म दूध पीने से सिर को आराम मिलेगा । गुरुदास जवाब में कुछ बोले नहीं तो धनवन्ती ने बेफिक्री की साँस ली।

चौके में जा दूध औटाया। झाग मारने लगी कि छोटी बहू दहलीज में आ खड़ी हुई ।

एक बार तेज़-तर्रार नज़र से सास की ओर देखा और ओठों पर मुस्कराहट ला बोली-

अम्मा, दूध जमाने लगी हो तो सजरी जाग देना। कल का दही खट्टा था।

धनवन्ती के दूध औटा हाथ थम गए। जी तो हुआ पलटकर कुछ कहे पर अपने को रोक दिया। इस ओछी के संग वह भी क्यों ओछी बने ?

- बहू, तुम्हारे बापू का जी अच्छा नहीं। दर्द के मारे निढाल पड़े हैं, उन्हीं के लिए दूध ले जाती हूँ ।

धनवन्ती की छोटी बहू फूलों की आँखें चमकने लगीं अम्मा, बापू दुखती दाढ़

निकलवा आए हैं न ! अब तो दर्द का आराम होगा।

धनवन्ती ने बिना कुछ कहे बहू के मुँह पर से आँखें लौटा लीं। आँचल के छोर से दूध का गिलास ढाँपा और चौके से बाहर निकल गई।

धनी के पास पहुँचते-न-पहुँचते मन घिर आया। घर के मालिक के लिए इतने से दूध पर भी आँख !

दूध दे धनवन्ती गुरुदास के पैताने आ बैठी और धनी के पाँव दाबते-दाबते रो पड़ी।





Bookमित्रो मरजानी / Mitro Marjani
AuthorKrishna Sobati
LanguageHindi
Pages68
Size0.6 MB
FilePDF
CategoryHindi Books,Novel
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