जैसे उनके दिन फिरे हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Jaise Unke Din Phire Hindi Book PDF Download
एक था राजा । राजा के चार लड़के । रानियां तो अनेक थीं, महल में एक 'पिंजरापोल' ही खुला था । पर बड़ी रानी ने बाकी रानियों के पुत्रों को जहर देकर मार डाला था और इस बात से राजा साह बहुत प्रसन्न हुए। वे नीतिवान थे और जानते थे कि चाणक्य आदेश है, 'राजा अपने पुत्रों को भेड़िया समझे । ' बड़ी रानी के चारों लड़के जल्दी ही राजगद्दी पर बैठना चाहते थे, इसलिए राजा साहब को बूढ़ा होना पड़ा।
एक दिन राजा साहब ने चारों पुत्रों को बुलाकर कहा, "पुत्रो, मेरी अब चौथी अवस्था आ गई है । दशरथ ने कान के पास के केश श्वेत होते ही राजगद्दी छोड़ दी थी । मेरे बाल खिचड़ी दिखते हैं, यद्यपि जब खिजाब धुल जाता है तब पूरा श्वेत हो जाता है। मैं संन्यास लूंगा, तपस्या करूंगा । उस लोक को सुधारना है, ताकि तुम जब वहां जाओ, तो तुम्हारे लिए मैं राजगद्दी तैयार रख सकूं। आज मैंने तुम्हें यह बतलाने को बुलाया है कि गद्दी पर चार के बैठ सकने लायक जगह नहीं है। अगर किसी प्रकार चारों समा भी गए, तो आपस में धक्का-मुक्की होगी और सभी गिरोगे। मगर मैं दशरथ सरीखी गलती भी नहीं करूंगा कि तुममें से किसी के साथ पक्षपात करूं। मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा। तुम चारों आज ही राज्य से बाहर चले जाओ। ठीक एक साल बाद इसी फाल्गुन की पूर्णिमा को चारों दरबार में उपस्थित होना । मैं देखूंगा कि इस साल में किसने कितना धन कमाया और कौन-सी विशेष योग्यता हासिल की। तब मैं मन्त्री की सलाह से जिसे सर्वोत्तम समझंगा, राजगद्दी दूंगा।"
'जो आज्ञा ।' कहकर चारों ने राजा साहब को भक्तिहीन प्रणाम किया और राज्य के बाहर चले गए।
पड़ोसी राज्य में पहुंचकर चारों राजकुमारों ने चार रास्ते पकड़े और पुरुषार्थ तथा किस्मत को आजमाने चल पड़े।
ठीक एक साल बाद -
फाल्गुन की पूर्णिमा को राज- सभा में चारों लड़के हाजिर हुए। राज सिंहासन पर राजा साहब विराजमान थे, उनके पास ही कुछ नीचे आसन पर प्रधानमंत्री बैठे थे। आगे भाट, विदूषक और चाटुकार शोभा पा रहे थे।
राजा ने कहा, “पुत्रो ! आज एक साल पूरा हुआ और तुम सब यहां हाजिर भी हो गए। मुझे उम्मीद थी कि इस एक साल में तुममें से तीन भाई तो बीमारी के शिकार हो जाओगे या कोई एक शेष नको मार डालेगा और मेरी समस्या हल हो जाएगी। पर तुम चारों यहां खड़े हो । खैर, अब तुममें से प्रत्येक मुझे बतलाए कि किसने इस एक साल में क्या काम किया, कितना धन कमाया और राजा के लिए आवश्यक कौन-सी योग्यता प्राप्त की?”
ऐसा कहकर राजा साहब ने बड़े पुत्र की ओर देखा ।
बड़ा पुत्र हाथ जोड़कर बोला, “पिताजी, मैं जब दूसरे राज्य पहुंचा, तो मैंने विचार किया कि राजा के लिए ईमानदारी और परिश्रम बहुत आवश्यक गुण हैं। इसलिए मैं एक व्यापारी के यहां गया और उसके यहां बोरे ढोने का काम करने लगा। पीठ में मैंने एक वर्ष बोरे ढोए हैं, परिश्रम किया है । ईमानदारी से धन कमाया है। मजदूरी में से बचाई हुई ये सौ स्वर्ण - मुद्राएं ही मेरे पास हैं। विश्वास है कि ईमानदारी और परिश्रम राजा के लिए बहुत आवश्यक हैं। और मुझमें ये हैं, इसलिए राजगद्दी का अधिकारी मैं हूं।” "
वह मौन हो गया। राज-सभा में सन्नाटा छा गया।
राजा ने दूसरे पुत्र को संकेत किया। वह बोला, “पिताजी, मैंने राज्य से निकलने के बाद सोचा कि मैं राजकुमार हूं, क्षत्रिय हूं - - क्षत्रिय बाहुबल पर भरोसा करता है। इसलिए मैंने पड़ोसी राज्य में जाकर डाकुओं का एक गिरोह संगठित किया और लूटमार करने लगा। धीरे- धीरे मुझे राज्य कर्मचारियों का सहयोग मिलने लगा और मेरा काम खूब अच्छा चलने लगा। बड़े भाई जिसके यहां काम करते थे, उसके यहां मैंने दो बार डाका डाला था। इस एक साल में कमाई पांच लाख स्वर्ण-मुद्राएं मेरे पास हैं। मेरा विश्वास है राजा को साहसी और लुटेरा होना चाहिए। तभी वह राज्य विस्तार कर सकता है। ये दोनों गुण मुझमें हैं, इसलिए मैं ही राजगद्दी का अधिकारी हूं।
Book | जैसे उनके दिन फिरे / Jaise Unke Din Phire |
Author | Harishankar Parsai |
Language | Hindi |
Pages | 17 |
Size | 3 MB |
File | |
Category | Hindi Books, Story |
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