एवेरेस्ट की बेटी हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Everest Ki Beti Hindi Book PDF
वह रात अभी भी प्राणघातक प्रतीत हो रही थी और मैं अपने दिल की बेतहाशा दौड़ती हुई धड़कन सुन सकती थी। मेरे जीवन के अंत में मात्र एक रेलगाड़ी के लाइन पर आने जितनी दूरी थी। गरजती व दहाड़ती हुई गाडियाँ दूर से डराते हुए मेरे नजदीक आ रही थी। मैं उनके फुंफकारने की आवाजें सुन सकती थी। चलती ट्रेनों से अपने आस-पास की जगह पर गिरे हुए मानवों के मल-मूत्र की दुर्गंध महसूस कर सकती थी तथा रेलवे लाइन पर पहियों के गुजरने से उत्पन्न चिनगारियों को भी महसूस कर सकती थी।
मैं यहाँ थी— ट्रैक साइड में खाली पड़े, बजरी क्षेत्र पर, ठंड तथा डर से थर-थर काँपती, दो पत्थरों को कसकर पकड़ अपने कष्टदायी दर्द को बरदाश्त करते हुए। ऐसा लग रहा था जैसे कि मुझे लोहार के भारी हथौड़े के द्वारा बुरी तरह से कुचल दिया गया था। मेरा सारा शरीर मेरे अपने खून से सन गया था। मेरी बाई टाँग के ऊपर से ट्रेन निकल गई थी, दाईं टाँग में बहुत सारी टूटी हड्डियाँ तथा स्नायुबंध (जोड़) टूट गए थे। कुल मिलाकर मैं पस्त थी, दोनों टाँगें हिल नहीं सकती थीं। खून की कमी की वजह से मेरी नजर धुँधली हो गई थी। मेरे शरीर का प्रत्येक हिस्सा कष्ट से भरा हुआ था, जिसके कारण मैं स्वयं का चिल्लाना रोक नहीं पा रही थी। दर्द बद से बदतर होता जा रहा था। अंततः वह मेरे नियंत्रण से बाहर हो गया। मैं बेहोश हो गई थी।
जब मुझे होश आया तो हालात नहीं सुधरे थे। अगर कुछ हुआ था तो वह यह कि मेरा दर्द तब तक बहुत बढ़ गया था, जब तक मेरा शरीर दर्द से तड़पने के कारण मूक हो गया था। हर क्षण ट्रैक आनेवाली गाड़ी का संकेत देते हुए काँप रहे थे और हर समय एक ट्रेन मेरे पास से गुजरते हुए वही भयावह कर्कश नाद बढ़ा जाती । मैं खुद के बारे में सोचती कि मैं अब अन्य ट्रेन को देखने के लिए बचूँगी भी या नहीं। वे संवेदनहीन रेल की बोगियाँ मेरी लाचार स्थिति का मजाक उड़ती दिखती थीं। शुक्र है कि मेरे शरीर के विपरीत मेरा मस्तिष्क अभी भी सक्रिय था। 'अपने हाथों और अंगों को ट्रैक पर मत गिरने दो। अपने आपको गिरने से बचाओ...'
मेरे परिवार, विशेषतया मेरे पिता, एक गर्वित सेना नायक ने मुझे हमेशा अंत तक कोशिश करना सिखाया था । अतएव मैंने कोशिश की। 'बचाओ...बचाओ... कृपया कोई मदद करो...' मैं चिल्लाई मदद के लिए कम, अपने डर को दूर भगाने के लिए ज्यादा, शोर भी मचाया। मुझे संदेह था कि किसी ने सुना भी है या नहीं। लगातार खून की कमी का मतलब था कि मेरे शरीर की शक्ति बहुत जल्दी खत्म हो रही थी। जल्द ही मेरी चिल्लाहट, रिरियाने में बदल गई थी।
जो भी हो, वहाँ मृत रात में कौन होगा, पता नहीं और वह भी सुनने के लिए और शायद कोई सुनना ही नहीं चाहता हो ऐसी आवाजों को! इस स्वार्थी और संदेहास्पद युग में, ऐसे एक कुसमय पर मदद की पुकार पर प्रतिक्रिया देने या इस हेतु सोचने के लिए भी गहन चारित्रिक शक्ति चाहिए होती है। ऐसे ही किसी घटनाक्रम में मैं कैसे मदद की पुकारों का जवाब देती? मगर दर्शन शास्त्र के चिंतनों के लिए यह स्थान या समय बहुत ही गलत था।
मेरे विचार मेरे शरीर पर विचरण करते जीवों से बाधित हुए। मुझे मेरा डर याद है कि कुतरनेवाले जंतुओं को न्योता नहीं देना पड़ता है, खासकर रेलवे ट्रैकों पर वे मेरे पूरे शरीर पर तेजी से फैल गए थे। उनमें से कुछ ने शायद मुझे मृत समझ लिया था, तभी मेरे शरीर को कुतरना शुरू कर दिया था। साथ ही कुछ साहसी जीवों ने मेरे मांस पर दावत उड़ानी शुरू कर दी थी। मैं उन्हें रोकने के लिए शक्तिहीन थी, अपने हाथ-पाँव हिलाने में पूर्णतया असमर्थ थी।
Book | एवेरेस्ट की बेटी / Everest Ki Beti |
Author | Arunima Sinha |
Language | Hindi |
Pages | 83 |
Size | 1 MB |
File | |
Category | Biography, Inspirational |
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