अछूत की आत्मकथा हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Achhut Ki Atmakatha Hindi Book PDF Download
टामस भारतीय ईसाई थे बड़े ही हँसमुख, प्रसन्नचित्त, पर रोबीले और तेज़ तर्रार शरीर गँठा हुआ और रंग गेहुआ था। वे साहबी ड्रेस में रहना बहुत पसन्द करते थे। उन दिनों वे रामपुर में तहसीलदार थे। उनकी प्रकृति में एक बड़ी ही विचित्रता थी। वे हिन्दुओं से बहुत ज्यादा नफ़रत करते थे। हिन्दुओं के मुक़द्दमे में वे आवश्यकता से कहीं बहुत अधिक सख्ती से काम लेते थे। उनके अधिकार में जो हिन्दू-कर्मचारी थे, वे भी उनसे सुखी न थे पर मुसलमानों के प्रति उनके भाव दूसरे ही प्रकार के थे। जब उनके मामले मुकद्दमे होते, तब उनकी वह क्रूरता न जाने कहाँ चली जाती थी मुसलमान-कर्मचारी यहाँ तक कि एक अदना मुसलमान चपरासी भी उनका प्रेम-पात्र था और ईसाई तो उनके जाति भाई ही ठहरे; उनसे उनकी गहरी छननी तो स्वाभाविक बात थी। टामस साहब के इस दृष्टिकोण की भिन्नता से नैं मन ही मन खिन्न रहता था।
मैं टामस साहब का रीडर था। जाति का ठहरा ब्राह्मण, इसलिए जब देखो तब मुझ पर उनकी चक्र दृष्टि रहती थी। मैं कितना ही डर कर चलता, कितनी ही सावधानी से काम करता पर साहब की डाँट फटकार से न बचता। मेरे साथ एक मुंशी भी काम करता था। वह एक तो लापरवाह था दूसरे साहब के मिजाज का परिचय पा चुका था, इसलिए सदा ही काम में असावधानी कर बैठता था। पर, साहब कभी उसे डाँटते न थे, केवल एक मीठी फटकार से ही उसकी भर्त्सना कर देते थे। उनका यह दुरंग व्यवहार देख मेरा हृदय जल उठता। मैं मन ही मन सोचने लगता, मुझ पर ही इनकी यह शनि-दृष्टि क्यों रहती है-मैंने इनका क्या बिगाड़ा है, पर सरकारी नौकरी में अधिकारी के सामने और जब वह मजिस्ट्रेट भी हो, जवान हिलाना, विपत्ति बिसाहना है। लाचार, मैं मन मार कर रह जाता था।
एक बार मेरी पत्नी बीमार पड़ी। उसकी दवा-दारू का प्रबन्ध करने के लिए मुझे छुट्टी की आवश्यकता प्रतीत हुई। मैंने टामस साहब से केवल पाँच दिन की छुट्टी माँगी, पर सहानुभूति दिखलाने के स्थान पर उन्होंने मुझे बुरी तरह झिड़क दिया। एक तो पत्नी बीमार थी. चित्त वैसे ही खिन्न था, दूसरे ऊपर से यह फटकार पड़ी मारे क्रोध के मेरा सारा शरीर भन्ना उठा, आँखें लाल हो उठीं, हाथों की मुडी बंध गई। पर, साहब के रोबीले चेहरे पर दृष्टि पड़ते ही क्रोध मन में ही दबा कर रह गया। फिर भी मैंने निश्चय कर लिया कि आज साहब से इस अप्रसन्नता का कारण पूछ कर ही रहूंगा।
अदालत बन्द होते ही मैं टामस साहब के बंगले पर पहुँचा। उस समय वे कुर्सी पर बैठे आनन्द से सिगार पी रहे थे। में उन्हें सलाम कर चुपचाप खड़ा हो गया। साहब धुआँ छोड़ते हुए मुझसे बोले पण्डित क्या है? मैंने अत्यन्त ही नम्रता से कहा- हुजूर, अपराध क्षमा हो, कुछ विनय करना चाहता हूँ।
इस पर टामस साहब कुछ रुखाई से बोले- मैं समझ गया ! तुम लोगों को सिवा छुट्टी के और भी किसी वस्तु की इच्छा रहती है? जब देखो तब छुट्टी की पुकार मैं कहाँ तक छुट्टी बाँटता रहूँ?
मैं नहीं हुजूर! और ही विनय करना चाहता हूँ। पर, कहते डर लगता है-कहीं आप अप्रसन्न न हो उठें। साहब डरने की क्या बात है? कहो!
मैं हुजूर! जब देखता हूँ, तब आपको हिन्दुओं पर अप्रसन्न होते ही देखता हूँ। मैं जैसा कुछ काम करता हूँ आप उसे भली-भाँति जानते हैं। में कभी छुट्टी भी नहीं माँगता । मेरा साथी छोटा मुंशी मुसलमान है, आप उसका भी काम भली-भांति जानते हैं। मेरी पत्नी बीमार है-बुरी तरह बीमार है। मैं आपका ताबेदार हूँ-आपसे सहानुभूति की सहायता की आशा रखता हूँ, पर बदले में अपमान और खिन्नता पाता हूँ। मैं जानना चाहता हूँ कि हिन्दुओं पर आपकी यह अप्रसन्नता क्यों है, उन्होंने ऐसा कौन-सा पाप किया है।
Book | अछूत की आत्मकथा / Achhut Ki Atmakatha |
Author | Adhyapak Zahurbakhsh |
Language | Hindi |
Pages | 20 |
Size | 17 MB |
File | |
Category | Hindi Books, Biography |
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