वेदांत पियूष सितंबर 2023 हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Vedanta Piyush September 2023 Hindi Book PDF



Vedanta Piyush September 2023 Hindi Book PDF


वेदांत पियूष सितंबर 2023 हिंदी पुस्तक पीडीएफ / Vedanta Piyush September 2023 Hindi Book PDF All Chapters -


1. श्लोक

2. पू. गुरुजी का संदेश

3. वेदान्त लेख

4. वाक्यवृत्ति

5. गीता और मानवजीवन

6. जीवन्मुक्त

7. मनु और दशरथ चरित्

8. कथा

9. मिशन-आश्रम समाचार

10. आगामी कार्यक्रम

11. इण्टरनेट समाचार


पू. गुरुजी का संदेश

उपरति आत्मज्ञान के लिए आवश्यक सम्पत्ति की तरह बताई जाती है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है, उप अर्थात् समीप और रति अर्थात् रमण करना । अपने आप में रमना यह उपरति है । उपरति तब ही सम्भव होती है, जब कोई अपने अन्दर धन्य व कृतार्थ होता है । अपने आपकी यथावत् स्वीकृति है, जहां परिवर्तन की कोई आकांक्षा नहीं है । ऐसी मनोस्थिति जहां प्रत्येक प्राप्त परिस्थिति में धन्यता की वृत्ति बनी हुई है। ऐसी धन्यता भगवान के प्रति श्रद्धा और भक्ति का अद्भुत प्रसाद होता है । 

जहां प्रभु से कुछ भी मांगने की अपेक्षा नहीं है । जो कुछ भी प्राप्त है, उसे प्रभु की कृपा देखा जा रहा है । परमात्मा के प्रति अत्यन्त समर्पण है, जहां स्वयं को भी परमात्मा के हाथ में निमित समझा जा रहा है । वहां मन में प्रभु की बरसती हुई कृपा देखकर कृतज्ञता की भावना है । अतः निष्क्रियता भी नहीं है, किन्तु प्रभु के द्वारा प्राप्त प्रत्येक परिस्थिति को प्रभु की आज्ञा मानकर उसकी सेवा के लिए कर्म की अभिव्यक्ति है । जीवन में चिन्ता भय आदि का नामोनिशान नहीं है । वह प्रत्येक क्षण धन्यता का जीवन जीते हैं । 

एक ग्रंथ में आचार्य ने उपरति की व्याख्या करते हुए बताया कि स्वधर्म अनुष्ठानमेव । परमात्मा ने प्रत्येक जीव की विशेष प्रकृति बनाई है । उसके अनुरूप मन के अन्दर सहज प्रवृत्ति वा झुकाव होता है । उसे ही वर्ण अथवा स्वधर्म कहा जाता है। अपने स्वध धर्म के अनुरूप जीना ही प्रभु के अधीन होकर, उनकी आज्ञा का पालन करके जीना है । जब कोई व्यक्ति अपने स्वधर्म को जीता है, वहां उन कर्म में कोई चेष्टा वा प्रयास नहीं लगता है ।

कर्म के समय भी कर्म के बोझ से मुक्त रह पाता है, उसमें सहजता का आनन्द व अपने अन्दर विश्रान्ति का अनुभव करता है । कर्तापन के बोझे से रहित होने की वजह से कर्तृत्व का अभिमान भी शिथिल होता है । ऐसी स्थिति में स्वधर्म रूप कर्म मात्र आनन्द का हेतु बन जाता है, अतः उसके लिए आनन्द की प्राप्ति की, भविष्य की कोई गणित नहीं होती है । वह कर्मफल की चिन्ता से मुक्त हो जाता है । कर्मफल के प्रति चिन्ता व आसक्ति उसे भविष्य अथवा कल्पना के जगत में ले जाती है । 

इस प्रकार मनुष्य को अपने आपसे दूर कर देती है । जिसकी वजह से मूल्यवान वर्तमान के क्षण हाथ से फिसल जाते हैं । अन्त में भूतकाल का स्मरण करके पश्चाताप मात्र होता है । भूत और भविष्य में यात्रा ही अपने आपसे दूर जाना है । स्वधर्म के अनुष्ठान से वह अपने आपमें रमता है । जो व्यक्ति भूत की ग्लानि और भविष्य की चिन्ता से मुक्त होता है, वह ही वर्तमान में उपलब्ध वस्तु के बारे में विचार करके गहराई में जाने में समर्थ होता है । कर्मफलासक्ति से मुक्ति उसे अन्तर्मुख बनाती है । वह अपने स्वस्वरूप के बारे में गहराई से विचार करने में समर्थ हो पाता है । अतः स्वधर्म अनुष्ठान को ही उपरति बताया ।

इस मूल्य को विकसित करने के लिए प्रभु की बरसती हुई कृपा को देखकर धन्यता होनी चाहिए। पूरी सृष्टि उनकी सुन्दर कृति है, तथा हम भी उनकी कृति है। इस बात को जानते हुए अपने होने मात्र में धन्यता हो तथा प्रभु ने जिस विशेष प्रकृति व सामर्थ्य से नवाजा है, उसे पहचान कर समग्रता से जीना चाहिए। जो यह करने में समर्थ होता है, वह उपरम नामक सम्पत्ति से युक्त होता है। बाहर की पराधीनता से मुक्ति का बल इसीसे प्राप्त होता है।


तत्त्व में जाग्रति का स्वरूप

यह विचारणीय है कि तत्त्वज्ञान में जाग्रति होना किसे कहते है? सामान्य व्यक्ति यह सोचता है कि हम जीव, एक विषयी बने रहकर ब्रह्मरूप किसी विषय को जानते है, यह जानने से ही कृतार्थता होगी। ज्ञाता किसी चीज को जानना चाहता है। विशिष्ट चीज को जानने से ज्ञाता धन्य हो जाएगा। यह इन दोनों पक्ष में यह दोष दीखता है कि ज्ञाता व ज्ञान भी बना रहेगा। यदि विज्ञाता जाननेवाला बना रहे तो वह जीवन में तत्त्व का ज्ञान प्राप्त नहीं करता ।

जीव जैसा है, वैसा बना रहे और ज्ञान प्राप्त करना यह अजहदू लक्षणा से महावाक्य के अर्थ को घटाना है। जिज्ञासु में ज्ञातापन बना रहे फिर प्रबोध हो ऐसा तत्त्वज्ञान में नहीं। जीव कभी भी तत्त्व का ज्ञान प्राप्त व ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं करता। जीव का जीवत्व, व्यक्तित्व जिस समय बाधित हेता है, उस समय जो हमारा परिचय वो शाश्वत है। दूसरा जीव का पूर्ण निषेध भी आपेक्षित नहीं। क्योकि वो जहद लक्षणा है। उससे जीव ज्यों का त्यों बना रहकर कुछ क्षण शून्यता में जगता है। एवं न जहद लक्षणा से, न ही अजहत लक्षणा से। ज्ञाता अपने उपर, ज्ञाता के ज्ञातृत्व का चिन्तन करता है। वो कौन है, कैसे बना है, यह गहराई से विचार किया जाना चाहिए। यह शाश्वत व टिकाउ नहीं है। ज्ञाता मान कर, उसे ही परं सत्य समझ लिया है। ज्ञाात किसी चीज को प्रकाशित करता है। विज्ञाता जब भी किसी चीज को जानता है वो परं सत्य नहीं होता है। अर्तः जो विज्ञाता है, उसके बारे में विचार करे। विज्ञाता का विज्ञातृत्व स्वजनित नहीं किन्तु नैमित्तिक होता है। 

कर्ता का कर्तृत्व परजनित होता है। दृष्टाका दृष्ट्रत्व औपाधिक, नैमित्तिक है। अतः विचार करे तो जहां विज्ञाता का विज्ञातृत्व बाधित होता है, तो जो अवशिष्ट वहां विज्ञाता अपने से पृथक किसी विज्ञेय को नहीं जानता, तब त्रिपुटी बाधित हो जाती है। विज्ञाता शून्य भी नहीं होता है तथा विज्ञाता बना भी नही रहता। ऐसा विवेक करना कि विज्ञाता का विज्ञातृत्व बाधित हो जाएं। यह नैमित्तिक है, यह दीख जाएं तो उससे स्वतंत्र तत्व को दखने लगते है। हम विज्ञातृत्व ाके पकड कर नहीं बैठते है। यद्यपि मैं है किन्तु उसमें नैमित्तिक अंश बाधित हो गया। जहां समस्त उपाधि का निषेध तो विज्ञाता का विलक्षण रहस्य समझमें आता है। वो न विज्ञाता में, न विज्ञोय में आता है। वो ऐसा तत्व जहां कोई खण्ड नही।


श्लोक - ०९

यस्य प्रसादादहमेव विष्णुः मयि-एव सर्व परिकल्पितं च। इत्थं विजानामि सदात्मरूपं तस्यान्त्रि पद्मं प्रणतोऽस्मि नित्यम्।।

अर्थात - जिनके कृपाप्रसाद से हम आत्मरूप से यह जानते हैं कि हम ही विष्णु स्वरूप है और यह सारा विश्श्व मुझमें ही कल्पित है। उन हमारे गुरुदेव के कमलचरणों में हम नित्य नमस्कार करते हैं।


वाक्यवृत्ति

आचार्य ने ग्रंथ के आरम्भ में अपने लक्ष्यस्वरूप भगवान् विष्णु को नमस्कार करते हुए मंगलाचरण किया और अब उन लक्ष्य की सिद्धि के हेतुभूत अपने श्रीगुरु के चरणकमल में नमस्कार करते हैं।

तस्यान्त्रिपद्मं..... हम उनके चरणकमल में नित्य नमस्कार करते हैं, जिनके प्रसाद से हमने यह जाना कि हम ही स्वयं विष्णुस्वरूप है और हममें ही समस्त जगत कल्पित है। गुरु के प्रति श्रद्धा और चरणों में भक्ति से ही ज्ञान के द्वार उद्घाटित होते है। भक्ति श्रद्धा से ही संवाद सम्भव होता है। गुरुचरण में श्रद्धा-भक्ति होने का अभिप्राय उनके प्रत्येक वचनों में विश्वास होना तथा भक्ति हृदय का वह भाव है, जिसकी अभिव्यक्ति सेवा और समर्पण के माध्यम से होती है। सेवा से मन के दुराव, अभिमान, राग-द्वेष आदि दोष शिथिल होते जाते है। मन की पारदर्शिता होने लगती है। परिणामस्वरूप गुरु के समक्ष शिष्य का मन एक उद्घाटित किताब की तरह होता है। उसमें ज्ञान के लिए बाधा रूप कौन कौन से दोषादि है, यह सब स्पष्ट होने लगते है। अन्तःकरण की ज्ञान के लिए उपलब्धता होने लगती है। उसे ही गुरु से ज्ञान की दृष्टि का प्रसाद प्राप्त होता है। प्रसाद से अभिप्राय अपने कर्तृत्व वा ज्ञातृत्व का अभिमान समाप्त होकर जीवभाव बाधित होना है।

गुरु के प्रति अनन्य भक्ति से जो ज्ञान की दृष्टि प्राप्त होती है, उसका स्वरूप आचार्य बताते हैं कि 'अहमेव विष्णुः, मयि एव सर्वं परिकल्पितं च' । हम ही विष्णु अर्थात् जगत के अधिष्ठानभूत तत्त्व, जो जीव और ईश्वर का भी सत्य है। जहांजीवभाव पूर्णतः बाधित हो गया है। समस्त भेद की समाप्ति होकर हम एक अखण्ड विष्णुस्वरूप तत्त्व है, इस अखण्ड तत्त्व को अपनी आत्मा की तरह जानते हैं। हममें ही समस्त नामरूपात्मक, भेदयुक्त जगत कल्पित है। यह दृष्टि से युक्त होने का अभिप्राय अज्ञान नष्ट होना है। एक बार अज्ञान नष्ट होता है, तो पुनः नहीं आता है। अतः इस तथ्य में जाग्रति की अवस्था नित्य रहती है। उसमें विस्मृति वा पुनः अज्ञान की अवस्था में पुनरावर्तन की कोई सम्भावना ही नहीं है। ऐसी विलक्षण अलौकिक दृष्टि ही गुरु का कृपाप्रसाद है, जो कि उनके प्रति शरणागति का प्रसाद है। शास्त्र की इस अपूर्व दृष्टि वे ही प्रदान कर सकते हैं जो स्वयं इस दृष्टि से युक्त है। अतः गुरु के प्रति साक्षात् ब्रह्मस्वरूपता की दृष्टि होनी चाहिए।

इस श्लोक के माध्यम से ग्रन्थ का अनुबन्ध चतुष्ट्य द्योतित होता है। जो गुरु के प्रति शरणागत होकर पूर्णतः उपलब्ध है, वह ही अधिकारी है। क्योंकि शरणागति से साधन चतुष्टय की सिद्धि होने लगती है। इसका विषय अपनी ब्रह्मस्वरूपता की एकता का ज्ञान अर्थात् ब्रह्मज्ञान है। प्रयोजन संसरण की समाप्ति अर्थात् मुक्ति है। क्योंकि इस ज्ञान के फलस्वरूप ही अपनी ब्रह्मस्वरूपता में जाग्रति तथा भेदपूर्ण संसार को कल्पित देखा जाना अर्थात् समाप्ति होती है।

इस प्रकार गुरु और परमात्मा की वन्दना करके ग्रन्थ का आरम्भ किया जा रहा है।


गीता और मानवजीवन

मूलभूत प्रश्न यह है कि जीवन का ध्येय क्या है? धन अर्जित करना, उसका संचय करना, सुख-सुविधा का भोग करना क्या यही मात्र जीवन का ध्येय है? या उससे भी उत्कृष्ट कुछ है? यह मनुष्य-देह मात्र ऐसे निम्न ध्येय के लिए, मात्र भोग करने के लिए नहीं मिला है। खाना-पीना आदि ही मनुष्य का एक मात्र ध्येय होता तो मनुष्य-देह उसके लिए निकम्मा है। भगवान ने मनुष्य का पेट कितना छोटा बनाया है! दो, पांच, पच्चीस रसगुल्ला खाएंगे, उससे अधिक कितना खाएंगे? खाने के लिए ही भगवान ने हमें देह दिया होता तो शायद सुवर का देह देते, जिससे कि खाते ही रहे और लोटते ही रहे! किन्तु भगवान ने हमें ऐसा देह नहीं दिया है।

भगवान ने हमें मनुष्य-देह रूपी यह साधन दिया है, वह कोई सुख-सुविधा या इन्द्रिय-भोग में व्यर्थ व्यव करने के लिए नहीं दिया है, यह तो बहुत ही संवेदनशील और उमदा साधन है, और इसलिए उसे मात्र भोगविलास में व्यर्थ नहीं करना चाहिए। सर्जन की छूरी पेन्सिल छिलने के लिए प्रयोग नहीं की जानी चाहिए। कई वस्तु का प्रयोग कैसे करना - यह विवेक हमें होना चाहिए। हमें विवेकपूर्वक विचार करना चाहिए कि यह मनुष्य-जीवन किस प्रयोजन से प्राप्त हुआ है? यह मनुष्य देह भगवान ने हमें किसलिए दिया हैं?

उपनिषद् बताते हैं कि मनुष्य देहरूपी यह रथ है, पांच ज्ञानेन्द्रियां इसके घोड़ें है, बुद्धि सारथि है और मन लगाम है। इस रथ में विराजमान अहंकार रथ का स्वामी है। भगवान ने यह मनुष्य-उपाधिरूपी उत्कृष्ट वाहन हमें दिया है। वाहन तब ही दिया जाता है कि जब हमें कहीं पहुंचना हो, कोई ध्येय सिद्ध करना हो। इस प्रकार उत्कृष्ट ध्येय सिद्ध करने के लिए ही यह मनुष्य-उपाधि प्राप्त है। उत्कृष्ट ध्येय के प्रति अपनी सदैव दृष्टि रखना आवश्यक है। उससे प्रेरणा हमें प्राप्त हो, उससे एक प्रकार का बल प्राप्त हो। यह बल जिसे प्राप्त हुआ हो, वही निम्न ध्येय को, निम्न प्रकार के जीवन का त्याग कर सकता है।

आप कहेंगे कि 'ऐसा त्याग, जगत में तो कहीं दीखता नहीं है। यहां तो सर्वत्र प्रतिस्पर्धा ही होती हुई दीखाई देती है।' किन्तु उत्कृष्ट ध्येय प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले को यह सब देखादेखी से, इन सब दौड़ से दूर रहना होगा। श्रेष्ठ पुरुषों का हमें अनुसरण करना चाहिए। ऐसे आदर्श श्रेष्ठ पुरुष वर्तमान युग में शायद प्रत्यक्ष हाजिर न भी हो, ऐसे समय में हमें शास्त्र में, अपने आप पर श्रद्धा रखनी होगी। शास्त्र बताते हैं कि 'सत्यमेव जयति नाऽनृतम्' सत्य की ही जय सदैव होती है और झूठ की कभी नहीं। सत्य से देवलोक की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। शास्त्र के ऐसे मूलभूत वचनों में श्रद्धा की आवश्यकता है। भले ही रावण की सेना बहुत विशाल हो, बलवान हो, सज्ज हो, किन्तु अन्त में विजय तो श्रीराम की ही होती है। इसलिए श्रीराम जैसा बल व सत्यता होनी चाहिए। यह शक्ति भी सत्य से ही प्राप्त कर सकते है, यदि अपने समक्ष ऐसा महान् लक्ष्य हो तो !

गांधीजी का ध्येय था सत्य। प्रत्येक को उनके अधिकार के गौरव के अनुरूप जीने का अवसर मिलना चाहिए और उसमें यदि अन्याय होता हो तो उसके सामने भी लड़ना चाहिए, किन्तु वह भी सत्य और अहिंसा के मार्ग से ही होना चाहिए, हिंसा के मार्ग से नहीं, ऐसा वे दृढ़रूप से मानते थे। क्योंकि उनको शास्त्रवचन 'अहिंसा परमो धर्म' 'अहिंसा ही परं धर्म है' इस पर परं श्रद्धा थी। उनका विश्वास था कि अहिंसा में एक ऐसा सूक्ष्म, आन्तरिक बल है, जिससे बड़ी से बड़ी स्थूल, बाह्य ताकत को भी परास्त कर सकते है। इसलिए आवश्यक साधन तपस्या और श्रद्धा अपने में होने पर उससे प्राप्त बल के द्वारा हम उत्कृष्ट ध्येय के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं और निकृष्ट, भोगप्रधान जीवन को त्याग सकते हैं।

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