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हलाला पुस्तक | Halala Hindi Book PDF Download
डमरू के कानों में जब-जब यह शब्द पड़ता, तब-तब उसे लगता मानो पूरी कायनात धधक उठी हो, और पूरी देह में कील की मानिंद काबली कीकर के सख़्त काँटे ठोंक दिये हों । वह उसी समय सबसे नज़रें बचाते हुए सीधे नोहरे में जाता और सालों से सहेज कर रखे गये बहुकोणीय टूटे और धुँधले पड़ चुके आईने में, देर तलक अपने आपको अपलक निहारता रहता।
पता नहीं यह इस पुराने पड़ चुके आईने का दोष है, या उसका अपना वहम कि उसे इसमें ऐसा कुछ नज़र नहीं आता, जैसा पूरा मोहल्ला और उसकी सबसे छोटी भावज आमना कहती है। वह पूरी कोशिश करता यह जानने की कि क्या सचमुच उसका रंग-रूप काले साँड़ की तरह है ? अपने इसी वहम को वह झुठलाने की बार-बार कोशिश करता, और आख़िरकार उसे अपने इस धुँधले पड़ चुके आईने पर ही यक़ीन करना पड़ता
अपना ही अक्स डमरू को अपना नज़र नहीं आता बल्कि बिना खल-चूरी की सानी के ऐसा बलद नज़र आता, जिसका काम बारह महीना अपनी देह तुड़वाने के कुछ नहीं होता । डमरू को लगता जैसे भादों की देह चाटती धूप में किसी आवारा मुँडेर पर स्याह काई की परत चढ़ी हुई हो। नियति के इस बेरहम मज़ाक़ पर उपजा गुस्सा धीरे-धीरे अपने आप बेचारगी में बदलता चला जाता, और प्याज की गंठों जैसी जिन बलिष्ठ भुजाओं पर उसे बड़ा नाज़ रहता, देखते ही देखते वे सूखी रेत पर छटपटाती मछलियाँ-सी नज़र आने लगतीं।
पुस्तक | हलाला पीडीएफ / Halala PDF |
लेखक | भगवानदास मोरवाल |
प्रकाशक | वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 195 |
आकार | 1 MB |
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Status | OK |