मंत्र योग हिंदी पुस्तक पीडीएफ | Mantra Yoga Hindi Book PDF
भक्ति का अर्थ है प्रेम । स्त्री पुरुष में वासनामय प्रेम होता है। कामतत्व उनमें अत्यधिक आकर्षण उत्पन्न करता है, उसमें आपसी त्याग की भावनायें जाग्रत होती हैं, परन्तु उसकी नींव पार्थिव शरीर की वासना और कामना है जो आकर्षण बने रहने तक ही दृढ़ रहती है । इसके बाद वह प्रेम नहीं रहता । वास्तविक प्रेम तो ईश्वर से होता है जिसमें निःस्वार्थता, त्याग और आत्मसमर्पण की भावना होती है । इसी प्रेम को भक्ति कहते हैं। ईश्वर के प्रति अविनश्वर और अलोकिक अनुराग को ही भक्ति कहते है।
नारद भक्ति सूत्र में कहा गया है- 'सा त्वस्मिन परम प्रेम रूपा' अर्थात् परमात्मा में परम प्रेम ही भक्ति का स्वरूप है। ज्ञाण्डिल्य भक्ति सूत्र के अनुसार 'सा परानुरक्तिरीश्वरे' अर्थात् ईश्वर में परम अनुराग का नाम ही भक्ति है। गर्ग मुनि का मत है कि भगवान की कथा अर्थात् नाम, रूप, गुण और लीला के कीर्तन में अनुराग का नाम ही भक्ति है। श्रीमधुसूदन सरस्वती ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भक्ति-रसायन' में भक्ति की परिभाषा करते हुये लिखा है- द्रवस्य भगवद्धर्माद् धारावहितां गता। सनेंशे मनसो वृत्तिर्भक्ति रित्य भिधीयते ।।
अर्थात् 'भगवान के गुणगान को सुनकर जब भक्तिगुण का विकास हो व मन द्रवीभूत हो जाए तो भगवान के प्रति अविच्छिन्न तैल धारा के समान जिस चिन्तन धारा में साधक लीन हो जाता है, उसी को मक्ति कहते है।' नारद पश्वराक्ष में लिखा है 'अन्य इच्छाओं को दग्ध करके निर्मल चित्त से समस्त इन्द्रियों के द्वारा भगवान की सेवा का नाम ही भक्ति है।
महर्षि पाणिनि ने भक्ति का धात्वर्थ करते हुए लिखा है 'मज सेवायाम' जिसमें उन्होंने भजधातु का अर्थ सेवा ही स्थिर किया है। उस सेवा में जो प्रेम की पवित्र भावनायें निहित हैं, वह ही भक्ति का रूप बन गई। महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य ने मक्ति की 'भगवान का महात्म्य जानकर उनमें सबसे बहलाता है। इसी से मुक्ति होती है।'
Book | मंत्र योग / Mantra Yoga |
Author | Dr Chamanlal Gautam |
Language | Hindi |
Pages | 397 |
Size | 91 MB |
File | |
Category | Hindi Books, Hinduism |
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